हजारीबाग की अपनी एक समृद्ध और प्राचीन संस्कृति रही है, जिसकी झलक इस ब्लॉग की पिछली पोस्ट्स पर आपको मिली हैं और आगे भी मिलती रहेगी. मगर क्या प्राचीन संस्कृति के खंडहर पर खड़े होकर वर्त्तमान से आँखें चुराई जा सकती है! हजारीबाग अपनी मौलिक संस्कृति से कटता जा रहा है, अपसंस्कृति, बाजारीकरण यहाँ भी हावी होता जा रहा है. सांस्कृतिक धरोहरों और मूल्यों से ज्यादा व्यक्तिगत स्वार्थ महत्त्वपूर्ण हो गए हैं; और इन सबसे अलहदा 'सिविक सेन्स' गायब हो गई है. किसी व्यक्ति की तरह कोई शहर या राष्ट्र भी बड़ी-बड़ी बातों से नहीं बल्कि छोटी-छोटी बातों से ही महान बनता है. क्यू में लगें हों, या सड़क पर चलने में या गन्दगी फ़ैलाने में ही - सभ्य मानसिकता के दर्शन कम ही होते हैं यहाँ. यह सिर्फ सांस्कृतिक रूप से समृद्ध हजारीबाग ही नहीं हमारे देश की भी स्थिति यही है. तो क्या यह समझा जाये कि समृद्ध संस्क्रती का गर्व बोध सभ्यता पर हावी हो जाता है ! क्या संस्कृति और सभ्यता एक दुसरे के विपरीत हैं ! क्या सभ्यता सिर्फ अंध आधुनिकीकरण (Modernisation) ही है ! शायद नहीं ब्रिटेन जैसे सांस्कृतिक और सभ्य राष्ट्र शायद इसके अपवाद के रूप में बेहतर उदाहरण हो सकते हैं. अलबत्ता भले ही हमारे इस छोटे से शहर में पर्याप्त 'सिविक सेन्स' न आ पाई हो; मगर अपनी थोड़ी कमियों और टिपिकल आदतों के साथ भी स्वीकार करता हूँ मैं इसे; क्योंकि "I Just Love My Hazaribagh"
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abhisekji apne sahi farmaya Hazaribagh ke logon mein civic sense khatma ho gayee hai.
ReplyDeleteSuresh